
लगभग दो दशक पूर्व गांव में चौपालों पर नजर आने वाली चहल पहल अब गायब हो चुकी है। शहरों में यह पर्व मनाया तो जाता है, लेकिन इसका स्वरूप बदल गया है। कुछ क्लब या सामाजिक संगठन तीजोत्सव मनाने के लिए एकत्रित होते है, जो इस पर्व को जिंदा तो रख रहे है पर इसकी मूल भावना से दूर होते जा रहे है। क्लब कल्चर के अलावा घरों व सार्वजनिक स्थानों पर डाले जाने वाले झूले लगभग गायब हो चुके है। कुछ वर्ष पूर्व सावन मास में मनाया जाने वाले इस पर्व के अवसर पर पूरे माह झूले झूलने का सिलसिला चलता था। उस समय टहनी रोकने की परंपरा भी थी। क्योंकि तीज के कुछ दिन पूर्व ही पेड़ों के टहने रोक दिए जाते थे। इसके लिए टहने पर एक कपड़ा बांध दिया जाता था, ताकि उसकी पहचान की जा सके। इस बात का ध्यान रखा जाता था कि टहना मजबूत, ऊंचा और लंबा होना चाहिए, ताकि उस पर लंबे झूले आ सकें। महिलाएं घरों, गली, मोहल्लों में एकत्रित होकर समूहगान गाया करती थी। लेकिन आज के युग में अधिकांश महिलाएं तीज के गीतों को ही भुला चुकी है। सामान्यतया लड़कियां विवाह के बाद अपनी पहली तीज पीहर में मनाती है। बड़ी लड़कियां भी पीहर आने तो तरसती है, ताकि वे अपनी बचपन की सहेलियों से मिल सकें। तीज गांव की लड़कियों का अपने पीहर में मिलन का एक सामूहिक त्यौहार भी है। लेकिन अब ये सब केवल किताबी होते नजर आ रहे है।
No comments:
Post a Comment