Monday, September 22, 2008

निस्वार्थ सेवा जीवन का सर्वोपरि धर्म : स्वामी दिव्यानंद


फतेहाबाद,22सितम्बर (शाम सरदाना): सेवा और सुमिरन ज्ञान भक्ति का व्यवहारिक स्वरूप है। धर्म की यदि व्यवहारिक परिभाषा देखनी हो तो निस्वार्थ भाव से होने वाली सेवा में और विवेकपूर्वक किये जाने वाले नाम चिन्तन में ही देखा जा सकता है। श्री गीता मदिंर मॉडल टाऊन फतेहाबाद में परम पूज्य चरण सद्गुरुदेव श्री स्वामी गीतानंद जी महाराज द्वारा सस्थापित धर्मार्थ गीता सिलाई शिक्षा केंद्र के वार्षिक महोत्सव में श्री महाराज जी के ही परम कृपा पात्र शिष्य पूज्य चरण महामंडलेश्वर श्री स्वामी दिव्यानंद जी महाराज ने आज इस कार्यक्रम का शुभारंभ दीप प्रज्जवलित करते हुए कहे कहा कि बड़े-बड़े पंडाल लगाकर उसमें धार्मिक व्याख्यान हो जाना ही धर्म प्रचार नहीं तब तक कि व्यक्ति की मानसिकता धार्मिक न हो। व्यक्ति के आसुरी दुर्गुणों का नाश होने पर ही दैवीय गुण प्रकट होते हैं। धर्म प्रचार का सबसे बड़ा लाभ यही है सेवा और सुमिरन इन सारी अच्छाईयों का सार है शर्त केवल इतनी है कि सेवा निस्वार्थ भाव से होनी चाहिए अन्यथा बड़े-बड़े पूंजीपतियों ने सेवा जैसे पवित्र धर्म को भी किनही उपायों का आश्रय लेकर बदनाम कर रखा है। इसी प्रकार सुमिरन भी केवल मजहबी न हो अपितु नाम से प्रभु पाने की प्यास हो, केवल तड़फन हो। प्रभु मिलन की उम्मीद हो। यही उम्मीद रस में बदल जाये। भक्त उस रस में डूबकर आत्मानुभूति करे। आनंद का अनुभव करे। जीवन में यही रस अन्य दुर्गुणों को समाप्त कर देगा।

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